भिण्ड। पर्यूषण पर्व के अवसर पर खण्डा रोड़ पर चल रहे प्रवचनो मे गणाचार्य विराग सागर जी महाराज ने कहा कि आज उत्तम त्याग का दिन है त्याग के बारे मे कहना बहुत सरल है पर आत्मीय भावो से वस्तु का त्याग करना अत्यंत कठिन है त्याग के बारे मे मात्र कहने का कार्य पण्डितो का, व्याख्याताओं का होता है त्याग करने वाला मात्र पण्डित, व्याख्यता, उपदेशक नही अपितु संत कहलाता है त्याग शब्द ही अपने आप मे अनुपम अनूठा है संसार से त्याग शब्द हट जायेगा तो सृष्टि का सारा क्रम, सारा सौन्दर्य, सारा जीवन समाप्त हो जायेगा प्रकृति का प्रत्येक पदार्थ त्याग की ही शिक्षा देता है संसार की प्रत्येक क्रिया त्याग मूलक है। वृक्ष, फलों को त्यागना, नदी, पानी को त्यागना, अग्नि, उष्णता प्रदान करना बन्द कर दे, सूर्य, प्रकाश देना बन्द कर दे तो संसार की भयावह स्थिति बन जायेगी त्याग की महिमा अपरम्पार है, त्याग ही जीवन का सम्मान कराता है, त्याग ही जीव को ऊपर उठाता है, त्याग ही शान्ति का सोपान है, त्याग ही मुक्ति का मार्ग है। त्याग के बिना न तो आप प्रवचन सुन सकते है न ही मैं प्रवचन कर सकता हूॅ आपने घण्टे भर के लिए घर का त्याग किया, सन्त मिल गये, उपदेश मिल गया और कही आप जीवन भर के लिए घर का त्याग कर दे तो सन्यासी हो जाये तो साक्षात भगवन्त मिल जायेगे अतः त्याग ही जीवन का सौन्दर्य है जिस प्रकार बिना बीज के वृक्ष उत्पन्न नही होता बिना नींव के मकान खडा नही होता उसी प्रकार बिना त्याग के जीवन निर्मित नही होता वस्तु का पूर्णयता विसर्जन ही त्याग है।
आचार्य श्री ने बताया कि जैन धर्म का सम्मान आज त्याग के कारण ही है जिन-जिन वाहृय कारणों से आत्मा मे विकार उत्पन्न हो रहे है उन्हे छोडने का नाम ही त्याग है जो आत्म कल्याण मे बाधक तत्व है उनका विसर्जन ही त्याग है मोहमाया से मुक्त होने के प्रयास का नाम ही त्याग है परमात्मा से सम्बन्ध बनाने का प्रयास ही त्याग है सांसारिक ऐश्वर्य को छोडकर आध्यात्मिक ऐश्वर्य की उपलब्धि का पुरूषार्थ ही त्याग है संसार के प्रति मरना, सन्यास के प्रति जाग्रत होने का नाम ही त्याग है वस्तु के त्याग के साथ उससे ममत्व भाव के छोडने का नाम ही त्याग है आज आदमी वस्तु को तो छोड देता है पर ममत्व भाव को नही छोड पाता इसलिए उसका त्याग अधूरा है।
कई साधक यह कहते पाये जाते है कि जिस समय मैने घर छोड़ा मेरे पास इतनी सम्पत्ति थी तो उनका घर तो छूट चुका पर ममत्व स्मृति व वचन के रूप मे सम्पदा के प्रति आसक्ति नही छूटी। इसलिए ऐसा त्याग अहंकार के जागरण मे कारण होता है।

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