इंदौर ! आदिवासी समाज की रीढ़ मानी जाने वाली उनकी स्थानीय बोलियाँ अब तेजी से खत्म हो रही है। अकेले मध्यप्रदेश में ही करीब दर्जनभर बोलियाँ विलुप्ति के मुहाने पर पंहुच चुकी है। बड़ा बदलाव यह है कि अब आदिवासी इलाकों में ही बच्चे हिंदी और अंग्रेजी तो सीख जाते हैं लेकिन अपनी स्थानीय बोलियों से वे लगातार कटते जा रहे हैं। सुखद यह है कि अब सरकारी और स्वैच्छिक तौर पर इन बोलियों को सहेजने का जतन किया जाने लगा है।
बीते 50 सालों में 300 बोलियाँ लुप्त हो चुकी है और अब 196 बोलियाँ खत्म होने की कगार पर है। मध्यप्रदेश में भीली, भिलाली, बारेली, पटेलिया, कोरकू, मवासी निहाली, बैगानी, भटियारी, सहरिया, कोलिहारी, गौंडी और ओझियानी जनजातीय बोलियाँ सदियों से बोली जाती रही है, लेकिन अब ये बीते दिनों की कहानी बनने की कगार पर है. बोलियाँ किसी अंचल की अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं होती बल्कि इनमें इतिहास और मानव विकास क्रम के कई रहस्य छुपे हैं। बोली के साथ ही जनजातीय संस्कृति, तकनीक और एकत्रित परम्परागत ज्ञान भी तहस –नहस हो जाएगा।
बाज़ार, रोजगार और शिक्षा जैसी वजहों से जनजातियों में बाहर के शब्द तो प्रचलित हो चले हैं लेकिन उनकी अपनी मातृभाषा के स्थानिक शब्द प्रचलन से बाहर हो रहे हैं। दुखद है कि हजारों सालों से बनी एक भाषा, एक विरासत, उसके शब्द, उसकी अभिव्यक्ति, खेती, जंगल, इलाज और उसकी तकनीकों का समृद्ध ज्ञान, उनके मुहावरे, लोकगीत, लोक कथाएँ किसी एक झटके में खत्म हो जाएगी। इसके पीछे बड़ी वजह है सरकारी प्राथमिक शिक्षा और आँगनवाडियों में न तो कोई प्रयास हुआ और न ही सामुदायिक तौर पर इन समाजों ने इसकी चिंता की। एक वजह इनकी अपनी लिपि नहीं होना भी है, न ही कभी इसे सहेजने की कोशिश की गई। अब नई पीढ़ी में इन बोलियों को लेकर हीन भावना भी आती जा रही है।
आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान ने भीली, कोरकू और गौंडी में करीब पांच हजार शब्दों के शब्दकोष तथा व्याकरण भी प्रकाशित किए हैं। इसमें लगातार शब्द बढाए भी जा रहे हैं। इसी कड़ी में अब भिलाली, मवासी, बैगानी और बारेली के भी शब्दकोष बनाने पर काम चल रहा है। उधर खंडवा-बुरहानपुर जिले में कोरकू बोली को सहेजने के लिए वहां काम कर रही संस्था स्पंदन ने आँगनवाडियों में बच्चों के लिए चार्ट बनाए हैं। यहाँ कोरकू के इतिहास, लोक साहित्य, तकनीकें, पोषण और देसी इलाज के तरीके भी संग्रहित कर रहे हैं।

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