नई दिल्‍ली। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को लेकर राज्य में सरगर्मियां तेज होने लगी हैं। इस बीच चर्चा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी विधानसभा चुनाव लड़ सकते हैं। सीएम योगी फिलहाल विधान परिषद के सदस्य हैं लेकिन माना जा रहा है कि साल 2022 में होने वाले चुनाव में वह अयोध्या से ताल ठोक सकते हैं। बीते दिनों में अयोध्या में सीएम ने दो दर्जन से ज्यादा बार दौरा किया है। साथ ही विकास परियोजनाओं में राम नगरी का खास ख्याल भी रखा जा रहा है। पार्टी को उम्मीद है कि इस चुनाव में उसे न केवल स्थानीय मुद्दे, बल्कि राष्ट्रीय मसलों पर भी लोगों का समर्थन मिलेगा। भाजपा को यकीन है कि मुख्यमंत्री योगी खुद को इस चुनाव में ‘अपराजेय’ साबित कर देंगे। उत्तरप्रदेश में भाजपा ‘अयोध्या’ से लेकर ‘कश्मीर’ तक का हिसाब रखेगी। इस कड़ी में तकरीबन सभी बड़े राष्ट्रीय मुद्दों पर भाजपा, स्पष्ट तरीके से अपनी बात कहेगी। विपक्ष, जिन राष्ट्रीय मुद्दों को उछाल कर ‘योगी और भाजपा’ का भ्रम तोड़ने का दावा कर रहे हैं, पार्टी ने इसका तोड़ निकाल लिया है। भाजपा नेता, कोरोना संक्रमण, कश्मीर, किसान, राम मंदिर, महंगाई व बेरोजगारी जैसे मसलों पर मजबूती से अपना पक्ष रखेंगे। पार्टी ने इनमें से कई राष्ट्रीय मुद्दों को अपने पक्ष में करने की बात कही है। अब उसे यूपी चुनाव में जमकर भुनाया जाएगा।

  राजनीति के जानकार एवं जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. आनंद कुमार बताते हैं कि अब चुनाव सिर पर हैं, तो विपक्षी दलों को मुद्दों की याद आ रही है। उत्तर प्रदेश का चुनाव उतना साधारण भी नहीं है। अगर सत्ताधारी पार्टी को पसीना बहाना पड़ रहा है तो विपक्षी दलों के लिए ये मैदान कितना मुश्किल है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। विपक्ष, जब लोगों के बीच पहुंचेगा तो कुछ सवाल भी उठेंगे। साढ़े चार साल के दौरान सपा, बसपा व कांग्रेस पार्टी के नेता कहां थे। अब चुनाव आया है तो वादों की बरसात कर रहे हैं। लोग इतना तो समझते हैं कि कौन सा वादा पूरा होने वाला है और कौन सा नहीं। कोरोना संक्रमण के दौरान लोगों को जिस भयानक दौर से गुजरना पड़ा है, विपक्षी नेता, लोगों के बीच में जाकर इस बड़े सवाल का जवाब अवश्य मांगेंगे।  

भाजपा ने भी ऐसे सभी सवालों का जवाब तैयार कर लिया है। पार्टी को उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश या किसी भी दूसरे राज्य का वोटर अब कोरोना के उस दौर को भूल चुका है। यूं भी कह सकते हैं कि केंद्र सरकार ने लोगों को ‘वैक्सीन’ के चक्कर में ऐसा उलझाया कि अब उन्हें कोरोना से भय नहीं लग रहा। प्रधानमंत्री मोदी और उनके सहयोगियों से लेकर भाजपा के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं ने ‘वैक्सीन’ को लेकर ऐसा प्रचार अभियान शुरू किया कि विपक्ष भी हैरान रह गया। लोगों का ध्यान अब कोरोना की बजाए इस ओर ज्यादा जाने लगा कि देश में वैक्सीन का आंकड़ा कहां तक पहुंच गया है। इसके बाद किसान आंदोलन की बात होती है। विपक्ष ने इस मुद्दे को भी जमकर भुनाया है, लेकिन भाजपा ने अपनी रणनीति से इस मसले को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया कि जहां चुनाव में इसका संभावित असर खत्म हो गया है। लंबे समय तक सड़क मार्ग बंद रहने और आंदोलन स्थल पर कई तरह की अप्रिय घटनाओं से यह मुद्दा भी आम लोगों की याददाश्त से बाहर हो चला है। किसान आंदोलन को शुरू हुए एक साल हो गया, मगर अभी तक सरकार ने एक भी मांग नहीं मानी। शुरू में सरकार यह कहती थी कि ये तो ढाई प्रदेश के किसानों का आंदोलन है, अब एक साल बाद भी सरकार अपने उसी बयान पर खड़ी है।

  जानकारों का कहना है कि किसान आंदोलन का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उतना नहीं पड़ेगा, जितना बताया जा रहा है। हां, इस आंदोलन की आड़ में राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी का ग्राफ कुछ बढ़ गया है। तीन कृषि कानूनों के अलावा किसान आंदोलन का मूल ‘एमएसपी’ रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जिसे गन्ना बेल्ट कहते हैं, वहां किसानों को गन्ने का सही दाम नहीं मिल रहा। वहां एसएसपी का मुद्दा बड़ा नहीं है। गन्ना उगाने वाले किसानों के पास भूमि ज्यादा है। इनमें अधिकांश किसान, जाट हैं। इनकी नाराजगी देखने को मिल सकती है। बाकी जातियां, जिनके पास खेती की जमीन बहुत कम है, उन्हें सरकार से उतनी शिकायत नहीं है। यहां पर भी वोटों के बंटवारे का खेल हो सकता है। ऐसी स्थिति में भाजपा को फायदा पहुंचने की बात कही जा रही है। सपा व रालोद का गठबंधन, योगी के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर के किसान आंदोलन का असर वोटरों पर पड़ेगा, इसमें संशय है। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जाटों के 70 फीसदी से अधिक वोट मिले थे। इसके बाद 2019 के चुनाव में भी जाटों ने दिल खोलकर भाजपा का साथ दिया था। हालांकि अब भाजपा मंत्रियों को काले झंडे दिखाए गए हैं।  

अनुच्छेद 370 के बाद का कश्मीर, यह मुद्दा भाजपा खूब भुनाएगी। दशकों बाद कश्मीर में जन्माष्टमी की झांकियां निकली हैं। श्रीनगर के गणपतयार मंदिर में गणेश चतुर्थी की पूजा अर्चना संभव हो सकी। डल झील में एयर शो आयोजित हुआ। राम मंदिर, इस मुद्दे को यूपी ही नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों के लोगों के जेहन में भी ऐसा बैठाया है कि वे इसकी चर्चा कर रहे हैं। भले ही मंदिर बनाने का फैसला सुप्रीम कोर्ट का रहा हो, लेकिन पब्लिक आगे पीछे की सारी कहानी से वाकिफ है। भाजपा ने इस मुद्दे को इस तरह से जनता के बीच रखा कि विपक्षी नेताओं को भी मंदिर में पहुंचना पड़ा। उन्हें भी किसी न किसी तरह अयोध्या का जिक्र अपने भाषण में करना पड़ गया। विपक्षी नेताओं ने मंदिर में पहुंचकर श्रीराम के दर्शन किए। भाजपा, इसे अपने पक्ष में मान रही है। विपक्ष ने दोबारा से राफेल का मुद्दा उठाया है, लेकिन वह टिक नहीं सका। यूपी चुनाव में लोग उसे याद रखेंगे, ऐसा नहीं लगता। चुनाव की दहलीज पर केंद्र सरकार ने पेट्रोल व डीजल की कीमतें कम कर दी हैं। इसका असर चुनाव में दिखेगा। प्रो. आनंद कुमार के अनुसार, जब तेल के दाम आसमान छू रहे थे, तब विपक्षी दल उसे सरकार के खिलाफ एक बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं कर पाए। महंगाई और बेरोजगारी का मुद्दा, विपक्ष के पास था, मगर उसे उड़ा नहीं सके।

  हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा, जिसे भाजपा ने ‘हिंदुत्व’ की आड़ लेकर आगे बढ़ाना शुरू किया है, यूपी चुनाव में उसे अपने फायदे के तौर पर देख रही है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि भाजपा और सपा, ये दोनों पार्टियां चुनाव को हिंदू-मुसलमान बनाने के लिए जिन्ना के साथ अयोध्या गोलीबारी का मुद्दा उठा रही हैं। हाल ही में कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने हिंदू-मुसलमानों को लेकर एक ट्वीट साझा किया था। उन्होंने इस ट्वीट में किसी एक पार्टी पर निशाना नहीं साधा। ट्वीट में लिखा था, ‘तुम हिंदू, सिख, ईसाई न मुसलमान के हो, बस मित्रों के हो, न देश न इंसान के हो’। यूपी में अब्बाजान और जिन्ना को लेकर बयानबाजी शुरू हो गई है। मुख्यमंत्री योगी कह चुके हैं कि ‘अब्बाजान’ शब्द के इस्तेमाल पर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को एतराज क्यों है। इन बयानों से साफ है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में ‘हिंदू मुस्लिम’ को लेकर सभी दल अपनी अलग रणनीति बना रहे हैं। विपक्ष को मालूम है कि भाजपा के इस किले को फतेह करना आसान नहीं है।

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