रायपुर। मनुष्य पहले स्वंय अपनी सीमा में रहना सीख लें, जब वह स्वंय सीमा में रहेगा तो दूसरों को सीमा में रहने की बताने की आवश्यकता उसे नहीं पड़ेगी। अभी हो यह रहा है कि मनुष्य स्वयं तो अपनी सीमा लांघता है लेकिन दूसरों से सीमा के अंदर रहने की अपेक्षा करता है जो कि उसके दुखों का कारण बन जाता है। सीमा में रहना सकारात्मक सोच है और दूसरों को सीमा बताना यह हमारी नकारात्मक सोच को जाहिर करता है।
रामकिंकर विचार मिशन रायपुर द्वारा महाराजा अग्रसेन कॉलेज ऑडिटोरियम में प्रारंभ हुई रामकिंकर प्रवचन माला में इस वर्ष मति, कीर्ति, गति, प्रशंसा और भलाई जैसे विषयों पर रामकिंकर महाराज जी के परम शिष्य व विचार मिशन के अध्यक्ष श्री मैथिलीशरण जी महाराज (भाईजी) ने पहले दिन ये बातें श्रद्धालुजनों को बताई। उन्होंने कहा कि भगवान राम का चरित्र हमें यह बताता है कि जीव को अपनी सीमा और मयार्दा में कैसे रहना चाहिए। ज्ञान के बारे में भगवान राम भी जानते है और रावण भी जानता है लेकिन दोनों के जानने और उसके अनुरुप व्यवहार करने में काफी अंतर है। एक ओर ज्ञान जहां सकारात्मक और सीमा के अंदर रहने की बात बताता है वहीं दूसरी ओर ज्ञान नकारात्मक और दूसरों को सीमा की नसीहत रहने की बात बताता है। उन्होंने कहा कि भगवान राम और सीता को वनवास मिलने पर लक्ष्मण जी ने कैकयी पर क्रोध नहीं किया जबकि लक्ष्मण क्रोधी स्वभाव के है और जनक जी पर भी क्रोधित हो जाते है। वहीं दूसरी ओर भरत शांत स्वभाव के है लेकिन माता कैकयी पर क्रोधित होते है, लेकिन इन दोनों में केवल एक ही संभावना है कि वे भगवान को पाना चाहते है। लक्षमण ने बिना क्रोध किए भगवान को पा लिया और भरत क्रोध करके राम से दूर हो गए।
भाईजी ने कहा कि सत्संगी व्यक्ति कभी रास्ता नहीं भटकता। भगवान की कथा मधुर, मनोहर और मंगलकारी होती है। मधुर का तात्पर्य भगवान के प्रसाद से है, भगवान का दर्शन मनोहारी है जिससे मन प्रसन्न हो जाता है और कथा के किसी भी सार को जीवन में उतार लें तो वह जीवन को मंगलकारी कर देती है, फिर जीवन में आनंद ही आनंद है। उन्होंने कहा कि जिस व्यक्ति ने सत्संग न किया हो वह जीवन में कुसंग डालने का अत्यंत प्रयास करता है जिससे कि सामने वाले का जीवन अस्थिर हो जाए। हमें ऐसे कुसंग वाले व्यक्तियों से सावधान रहने की आवश्यता है क्योंकि कुसंग कभी भी सुखकारी और भलदायी नहीं हो सकता। अच्छी स्मृति मनुष्य को अभी सुख नहीं देती, सुख विस्मृति देती है। विस्मृति को याद करते मनुष्य आनंदित हो जाता है।
प्रेम की व्याख्या करते हुए महाराजश्री ने कहा कि आज कल लोग प्रेम का भी बंटवारा करने लग गए है। माँ के प्रति अलग, पिता के प्रति अलग, भाई के प्रति अलग, अन्यजनों के प्रति अलग, भगवान से अलग। लेकिन प्रेम का बंटवारा नहीं होना चाहिए। बंटवारा के बाद भी प्रेम को एक करके उसे यदि भगवान के चरणों में अर्पित कर देते है तो उस प्रेम से जो सुकुन और आनंद की प्राप्ति होती है वह कहीं अन्यत्र प्राप्त नहीं हो सकती। प्रत्येक जीव रात दिन सुख पाने के लिए कार्य करते रहता है लेकिन सुख के मूल तक पहुंचकर उसे प्राप्त करना नहीं चाहता, वह उसके प्रयास भी नहीं करता और इसी आपा-धापी में वह ठगा जाता है।