इंदौर। स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी से ग्रसित एक दंपत्ति के दो बच्चे खोने के बाद उन्नत तकनीक से एक बार फिर गोद हरी हो गई है। यह इंदौर शहर में प्री-इंप्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग फॉर मोनोजेनिक डिसऑर्डर (पीजीटी-एम) का पहला सफल मामला है। इंदौर में ऐसा कोई दूसरा सफल पीजीटी-एम का मामला अधिकारिक तौर पर रिपोर्ट नहीं किया गया है।
नोवा आईवीएफ में फर्टिलिटी कंसलटैंट डॉ. ज्योति त्रिपाठी ने उक्त दावा करते हुए बताया कि एक दम्पत्ति स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी से पीडित थे, जिसके कारण उनके 6 माह का मासूम छिन गया। महिला ने जब पहली बार गर्भधारण किया तो गर्भ पूरे समय रहा और सामान्य प्रसव भी हुआ। समय निकलता गया तो लगा कि कुछ गड़बड़ है। बच्चे को दूध पीने में तकलीफ थी। वह आम नवजात शिशुओं की तरह बड़ा नहीं हो रहा था तथा उसकी मांसपेशियां कमजोर थीं।
कई चिकित्सकों से सलाह करने के बाद इस दंपत्ति की मुलाकात एक पेडियैट्रिक न्यूरोलॉजिस्ट से हुई। उन्होंने बच्चे की जेनेटिक जांच कराने का सुझाव दिया। इस जांच में बच्चे को स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी (एसएमए) टाइप-1 से प्रभावित पाया गया और करीब पांच महीने बाद उस बच्चे का देहांत हो गया। माता-पिता की जांच से इस बात की पुष्टि हुई कि दोनों स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी बीमारी के कैरियर है।
इस उम्मीद में कि अगला बच्चा सामान्य होगा, दंपत्ति ने फिर कोशिश की पर नकारात्मक परिणाम ही रहे। सीवीएस टेस्ट से पता चला कि भ्रुण स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी बिमारी से प्रभावित है और इसलिए गर्भपात कराने का निर्णय लेना पड़ा। यह जांच गर्भावस्था के 12वें हफ्ते में हुई थी। निराश दंपत्ति ने आगे और मदद तलाशने का निर्णय किया।
दंपत्ति नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी, इंदौर में कंसलटैंट डॉ. ज्योति त्रिपाठी से मिले । जिस पर उनकी डिटेल्ड काउंसलिंग की गई एंव गर्भधारण के लिए विभिन्न विकल्पों के बारे में सलाह दी गई । डॉ त्रिपाठी ने बताया कि क्लिनिकल जेनेटिसिस्ट और एम्ब्रायोलॉजिस्ट की एक्सपर्ट टीम के साथ मिलकर इस दंपत्ति के लिए प्री-इंप्लांटेशन जेनेटिक टेस्टिंग फॉर मोनोजेनिक डिसऑर्डर (पीजीटी-एम) तकनीक से ईलाज करने का निर्णय लिया । यह परीक्षण एक अग्रणी डायगनोस्टिक टेक्नालॉजी है जिसमें आईवीएफ के जरिए तैयार किए जाने वाले भ्रुण की एसएमए के लिए जेनेटिक जांच की जाती है और फिर स्वस्थ भ्रुण को गर्भाशय में स्थापित किया जाता है। इससे शिशु में स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी बीमारी का शिकार होने का जोखिम नहीं रहता ।
इसके लिए दंपत्ति के एग और स्पर्म का उपयोग किया जाता है। एक प्रशिक्षित एम्ब्रायोलॉजिस्ट द्वारा 5-8 एम्ब्रायोनिक (ट्रोफेक्टोडर्म सेल्स) सेल्स निकालने का काम किया जाता है और भ्रूण को आईवीएफ लैब में सरंक्षित रखा जाता है।
इसके बाद एम्ब्रायो बायोप्सी सैम्पल को पीजीटी-एम जांच के लिए प्रयोगशाला में भेजा जाता है। उक्त दंपत्ति के लिए इसी तरह सात भ्रुण तैयार किए गए इनमें से पांच को स्वस्थ पाये गये और बाद में इनका उपयोग सफल एम्ब्रायो ट्रांसफर के लिए किया जा सका। भावी मां की अच्छी देखभाल की गई और वे गर्भावस्था के दौरान स्वस्थ रही। 9 माह बाद उन्होने एक स्वस्थ पुत्री को जन्म दिया । जिसका वजन करीब 3.5 किलो था। बच्ची अब महीने भर की हो चुकी है और उसका अच्छा विकास हो रहा है।
बच्चे के पिता ने कहा, “कई चिकित्सकों से सलाह और भिन्न संभावनाओं का पता लगाने के बाद हम लगने लगा था कि हमारे पास गोद लेने के सिवा कोई विकल्प नहीं है और वही करना पड़ेगा। निराशा के उस माहौल में हमारे लिए उम्मीद की अंतिम किरण थीं, डॉ. ज्योति त्रिपाठी और नोवा आईवीएफ फर्टिलिटी इंदौर की उनकी टीम। सबसे उन्नत टेक्नालॉजी की सहायता और उनकी टीम के सतत प्रयासों के बिना हमें ऐसी बिटिया नहीं होती जो एसएमए से संक्रमित न हो।
क्या है स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी
स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी (एसएमए) एक गंभीर न्यूरोमस्कुलर बीमारी है । अनुमान है कि वैश्विक स्तर पर आठ से 10 हजार लोगों में एक व्यक्ति एसएमए से प्रभावित होता है तथा नवजात शिशुओं की मौत का यह एक अग्रणी जेनेटिक कारण है। नवजात शिशुओं में इसके जो लक्षण हैं उनमें सांस लेने की समस्या, दूध पिलाने में समस्या, मांसपेशियों की कमजोरी और विकास की गति धीमी होना शामिल है।
एसएमए की शुरुआत अगर जन्म के तुरंत बाद हो जाए तो शिशु छह महीने से ज्यादा नहीं रहता है। थोड़े बड़े बच्चों के लक्षणों में चलने-बैठने में अक्षम होना या समान उम्र के बच्चों की तरह विकास के मानकों पर अन्य सभी गतिविधियों को पूरा करने में अक्षम रहना शामिल है। यह जेनेटिक बीमारी का लाइलाज है और जो उपचार के विकल्प हैं वह व्यक्ती की जीवन ष्षैली को बेहतर रखने के लिए किये जाते है।