भिण्ड। चम्बल और ग्वालियर सम्भाग के इन दोनों सम्भागों के बाहर के जो अधिकारी पदस्थ किये जाते हैं उनकी प्राय: मानसिकता रहती है कि चम्बल घाटी क्षेत्र का पानी दूषित है जिसे पीकर आदमी को छोटी सी छोटी  बात पर गुस्सा आ जाता है और वह एक दूसरे की हत्या कर फरार हो जाता है, और बीहड का रास्ता पकड लेता है, डाकू बन जाता है आदि-आदि। कहीं का पानी इस दृषिट से तो दूषित हो सकता है कि वहां के लोगों को खास बीमारी हो जाये। लोग कहते हैं कि भोपाल के पानी में कैलिशयम का अभाव है अत: वे ऊपर से बहुत सा चूना खाते है। उत्तरप्रदेश में तो पानी में सबसे ज्यादा कैलिशयम की कमी होती है क्योंकि वहां पर तो पान में बहुत ज्यादा चूना खाया जाता है। किन्तु ग्वालियर चम्बल सम्भाग को छोडकर यह कहीं नहीं सुना गया कि कहीं का पानी गुस्सा दिलाने बाला या झगडा कराने बाला होता है।

वास्तविकता तो ये है कि जल का स्वाभाविक गुण शीतलता प्रदान करना और गर्मी
(गुस्सा या नाराजी) को शांत करना होता है। यदि यह गुण उसमें नहीं है तो वह पानी नहीं शराब होना चाहिये। भिण्ड-मुरैना में डाकुओं की बाढ आ जाती है लोग प्राय: किसी न किसी का कत्ल कर फरार हो जाते हैं। ये कत्ल प्राय: धन की प्रापित व क्रोधवश किये जाते है। लोगों का कहना है कि भिण्ड-मुरैना के लोग बहुत कुछ अपनी भौगोैलिक सिथति के कारण डाकू बनते है चम्बल घाटी के पानी के कारण नहीं, यदि चम्बल घाटी का पानी दूषित होता तो यहां के अधिकांश निवासी आपस में लडकर मर गये होते किन्तु ऐसा नहीं हुआ। इस क्षेत्र के मुशिकल से एक प्रतिशत लोग ही डकैत बनते हैं अथवा डाकुओं से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से सम्बन्ध रख पाते है। यदि चम्बल घाटी के पानी में ही गुस्सा दिलाने बाला गुण होता तो सभी को डकैत या हत्यारा बनना पडता भिण्ड-मुरैना के कस्बों या शहरों में बहुत कम हत्यायें होती है। इन दिनों पूरे देश में हत्यायें हो रही है तो क्या पूरे देश ने चम्बल घाटी का पानी पिया है चम्बल घाटी के पानी को गुस्सा दिलाने बाला कहना विराट मूर्खता है।
भिण्ड और मुरैना जिले कभी अत्यधिक सम्पन्न और सुसभ्य जिले थे किन्तु कृषि योग्य भूमि का निरन्तर कटाव होता गया लाखों हैक्टेयर कृषि योग्य भूमि बीहडों में बदल गयी और भूमि कटाव का यह सिलसिला आज भी जारी है। इसी अवधि में गांव के सभी रोजगार धंधे चौपट हो गये। गांव में न तो कोर्इ बुनकर रहे न कोर्इ बडेरा (रुर्इ धुनने बाला) रहा न कोर्इ तेली रहा न कोर्इ जूते बनाने बाला रहा गांव के सभी लोग अब खेती पर आश्रित है। जिसका क्षेत्रफल कटाव के कारण प्रतिवर्ष घटता चला जा रहा है। सभी गृह उधोगों के चौपट हो जाने और भूमि का बडी मात्रा में कटाव होने के कारण अपेक्षाकृत कम भूमि से ज्यादा लोगों को अपना गुजारा करना पडता है। इस कारण भूमि सम्बन्धी विवाद बहुत अधिक होते है। अब चूकिं भूमि ही जीविका का एकमात्र साधन रह गया है अत: लोग उसके लिये जान लेने और देने को तैयार हो जाते है। आखिर वे थोडी सी जमीन पर अपना हक क्यों छोडें और यदि छोड दें तो जिन्दा कैसे रहें।
भिण्ड और मुरैना जिले के कुंवारी और चम्बल घाटी के बीच के इलाके ही डकैतों की जन्मभूमि और शरण स्थल रहे है। क्योंकि जहां किसानों के पास जोतने के लिये जमीन नहीं है और कोर्इ रोजगार का जरिया नहीं है गांव के हर उधोग चौपट हो गये है। पटवारी की घूसखोरी के कारण भूमि विवाद बहुत होते है वह रुपये लेकर किसी की जमीन किसी के नाम लिख देते है। भूमि सम्बन्धी झगडों विवादों का निबटारा वर्षों तक नहीं हो पाता पुलिस  इन झगडों में निष्पक्ष भूमिका नहीं निभाती जो पक्ष पुलिस को पैसे खिला देता है उसी की पुलिस बजाती है। फलस्वरुप  बहुत से लोग गांव के सबल और सम्पन्न व्यकितयों के अन्याय का बदला लेने के लिये डाकू बन जाते है। अगर उन्हें पटवारी और पुलिस की निष्पक्षता मिल सके तो शायद लोग हिंसा का रास्ता न अपनायें।
जब स्वर्गीय आचार्य विनोवा भावे 1960 में हुये डकैतों के प्रथम आत्म समर्पण के समय भिण्ड जिले में आये थे। तब उन्होंने आत्म समर्पण के बाद भिण्ड शहर में आयोजित अपनी सभा में कहा था उसका आशय था  मैंने इस जिले की जो हालत देखी है उससे में इस निष्कर्ष पर पहुचा हू कि यहां के अधिकांश लोग यदि डकैत होते तो आश्चर्य की बात न होती यहां के अधिकांश लोग भले है और बहुत कम लोग डाकू है यह आश्चर्य की बात है। उन्होंने शहर के सफेदपोश डकैतों की भी चर्चा की थी। जो समाज में प्रतिषिठत बने रहते है।
जब खेती के लिये जमीन न हो सरकारी नौकरियों में स्थान न मिले उधोग धंधे चौपट हो जाये तो क्या भिण्ड-मुरैना के लोग अफीम या संकिया खाकर मर जाये। मरता तो क्या करता इस क्षेत्र के लोग यदि डाकू बन जाये हिंसा का रास्ता अपना लें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है।

प्रतिवर्ष 5 फीसदी बढ जाता है बीहड

चम्बल घाटी में सरकार की कोर्इ कार्य योजना नहीं होने से बीहड का दायरा लगातार बढता ही जा रहा है। बढते बीहड के कारण आधा सैकडा से अधिक गांव बीहडों में तब्दील हो गये है। भू-अभिलेख अधिकारी आरएन मिश्रा ने बताया कि प्रतिवर्ष बीहड बढ रहे है आधा सैकडा से अधिक गांव बीहड के कारण नष्ट हो चुके है। उन्होंने बताया कि चम्बल और कंवारी नदी के किनारे बसे सपाड, समन्ना, जखमौली, नुन्हाटा, कोसड, जोरी का पुरा, चासर, गढा, चिलोंगा, बडेरी, जैसे गांव तो पूरी तरह नष्ट हो चुके है। बहां के ग्रामीणों ने अपने खेतों में मकान बना लिये है और गांव ही छोडकर चले गये है।
बढते बीहड को रोकने और बीहडी भूमि को कृषि योग्य भूमि बनाने के लिये प्रदेश सरकार ने कृषि विभाग के माध्यम से बीहड कृष्यकरण योजना संचालित की थी लेकिन इसे तीन दशक पहले ही बंद कर दी गर्इ। बताया गया है कि लगातार बढते बीहडों को रोकने के लिये केन्द्र सरकार ने 1985 में विलेज प्रोटेक्शन योजना संचालित की थी। इस योजना का मुख्य उदेश्य भूमि कटाव व गांवों से हो रहे पलायन को रोकना था लेकिन इस योजना पर अमल होने से पहले ही बंद कर दिया गया।

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